कुछ लम्हें सीप में बंद मोतियाँ,
याद करके आँखों में छलकती मोतियाँ...
गूथ कर इन्हें मुक्ता की माला बना लूँ,
गले में डालकर ह्दय के पास सहेज लूँ।
मन करता है मुक्ताओं को नभ के सितारें बना दूँ,
कभी सोचती हूँ मुट्ठी में बंद कर लूँ..
कभी लगता है रेत पर फैला दूँ,
मुक्त कर दूँ मुक्ताओँ को और बुद्ध बन जाऊँ।
लेकिन बुद्ध बनना .....
रह-रह कर याद आते लम्हों को फिर सीप ....
सोमवार, 5 जनवरी 2009
लेकिन बुद्ध बनना .....
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